पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३७

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इसी बीच शिवशिव (बा० अम्बिका प्रसादजी) अपनी मां के साथ वहां आये। उन्होंने मुझसे धीरे से कहा-'भैय्या, यदि ये मामी की सम्पत्ति नहीं लेना चाहते, इनके पास बहुत है तो मुझे ही दिला दीजिए।' पर मैंने इसका कोई उत्तर उन्हें नहीं दिया । बात वहीं समाप्त हो गई। सन् १९०७ में अग्रज के देहावसान के बाद प्रसादजी गुरुतर ऋण भार से दबे थे। लगभग ६-७ मास पर्यन्त सोच विचार करने के बाद बरदह वकेस का इलाका और चौक का एक मकान बेचकर उन्होंने अपने आपको ऋण मुक्त किया। ऋण का भार उनके लिए असह्य था उन्होने जीवन में ऋण कभी नहीं लिया क्लेश उठाकर भी वे इससे विरत रहे-अन्त तक ऐसी परिस्थिति के प्रति वे सजग रहे कभी न तो ऋण लिया न वंश की प्राचीन निधि को छुआ उनके पूर्व पुरुषों के उन्मुक्त दान की कथा विख्यात थी। प्रमादजी ने बताया था कि खानदानी बटवारे के पहले तक एक करोड़ रुपयों का दान हमारे यहाँ हो चुका था-मुझे विस्मित देख उन्होंने एक पुरानी बही निकलवाई और वह टोटल दिखाया जिसमे अन्तिम टोटल एक कगेड कुछ हजार रुपए की रही-ऐसे ही नही किसी वंश में प्रसाद जैमा महापुरुष जन्म लेता है। प्रसादजी ने चौधुराने का पद कैसे छोड़ा प्रायः जब मैं काशी जाता था, 'प्रसाद'जी को कुछ स्वजातीय बन्धुओं द्वारा घिरा पाता। वे विरादरी सम्बन्धी कोई न कोई राग-रामायण लेकर 'प्रसाद'जी को घेरे रहते और चार-चार छ: छ: घंटे उनसे विरादराने की ऊल-जलूल बाते किया करते । उनका यह रवैया मुझं इसलिए बुरा लगता कि 'प्रसाद'जी के महत्व और उनके समय का मूल्य उनके लिए कुछ नही था। मुझे बराबर यह बात खटकती रहती, अन्त में एक दिन मुझसे नही रहा गया तो मैं उनसे पूछ बैठा-भइया, ये हलवाई जो आपको घेरे रहते है. क्या इन्हें कोई काम नहीं है ? उन्होंने कहा, 'काम क्यों नहीं है, अभी लगन का समय नही है, इसलिए खाली है, विरादरी की कोई समस्या लेकर आ जाते है । एक दिन एक हलवाई विरादरी वाले ने चौधुरी 'प्रसाद' जी के सम्मुख विरादरी की एक ऐसी समस्या प्रस्तुत की जिसे सुनकर मुझे बड़ा क्लेश हुआ और मैंने यह तय किया कि निश्चय ही चौधुराने का यह काम प्रसादजी के लायक नहीं है। जब तक ये इसमें रहेगे तब तक वे वह काम नही कर सकेगे जिसके लिए अपनी असामान्य प्रतिभा लेकर ये आये हैं। ये सुद्र और तुच्छ बुद्धि विरादरी वाले इनके महत्व को क्या जाने । उसी समय महात्मा गान्धी ने अछूतोद्धार की समस्या को लेकर उपवास किया और उसमें उन्हें सफलता मिल चुकी थी। मैंने अपने मन में निश्चय किया कि यदि मैं अपने पवित्र मन से 'प्रसाद' को उनके संस्मरण पर्व : २३३