पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५

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किये, किन्तु ईसा की पहली शताब्दी से लेकर ५वीं शताब्दी तक प्रायः उन्हें गुप्तवंशी तथा अपर जातियों से युद्ध करना पड़ा। भट्टियों ने लिखा है कि उस समय मौर्य-कुल के परमार लोग कभी उज्जयिनी को और कभी राजस्थान की धारा को अपनी राजधानी बनाते थे। इसी दीर्घकालव्यापिनी अस्थिरता से मौर्य लोग जिस तरह अपनी प्रभुता बनाये रहे, उस तरह किसी वीर और परिश्रमी जाति के सिवा दूसरा नहीं कर सकता। इसी जाति के महेश्वर नामक राजा ने विक्रम के ६०० वर्ष बाद कार्तवीर्यार्जन की प्राचीन महिष्मती को, जो नर्मदा के तट पर थी, फिर से बसाया और उसका नाम महेश्वर रखा, उन्हीं का पौत्र भोज हुआ। चित्रांग मौर्य ने भी थोड़े ही समय के अन्तर में चित्रकूट (चित्तौर) का पवित्र दुर्ग बनवाया, जो भारत के स्मारक चिह्नों में एक अपूर्व वस्तु है। ___गुप्तवंशियों ने जब अवन्ति मौर्य लोगों से ले ली, उसके बाद वीर मौर्यों के उद्योग से कई नगरियां बसाई गयी और कितनी ही उन लोगों ने दूसरे राजाओं से लीं । अर्बुदगिरि के प्राचीन भू-भाग पर उन्ही का अधिकार था। उस समय के राजस्थान के उब अच्छे-अच्छे नगर प्रायः मौर्य-राजगण के अधिकार में थे । विक्रमीय संवत् ७८० तक मौर्यों की प्रतिष्ठा राजस्थान में थी और उस अन्तिम प्रतिष्ठा का तो भारतवासी कभी न भूलेंगे जो चित्तौर-पति मौर्यनरनाथ मानसिंह ने खलीफा वलीद को राजस्थान से विताड़ित करके प्राप्त की थी। ____ मानमौर्य के बनवाये हुए मानसरोवर में एक शिलालेख है, जिसमें लिखा है कि-"महेश्वर को भोज नाम का पुत्र हुआ था, जो धारा और मालव का अधीश्वर था, उसी से मानमौर्य हुए।" इतिहास में ७८४ संवत् मे बाप्पारावल का चित्तौर पर अधिकार करना लिखा है, तो इसमें सन्देह नही रह जाता कि यही मानमौर्य वाप्पारावल के द्वारा प्रवञ्चित हुआ। महाराज मान प्रसिद्ध वाप्पादित्य के मातुल थे। वाप्पादित्य ने नागेन्द्र से भागकर मानमौर्य के यहां आश्रय लिया, उनके यहां सामन्त रूप से रहने लगे। धीरे-धीरे उनका अधिकार सब सामन्तों से बढ़ा, तब सब सामन्त उनसे डाह करने लगे। किन्तु बाप्पादित्य की सहायता से मानमौर्य ने यवनों को फिर भी पराजित किया। पर उन्हीं बाप्पादित्य की दोधारी तलवार मानमौर्य के लिये कालभुजंगिनी और मौर्य कुल के लिए तो मानो प्रलय समुद्र की एक बड़ी लहर हुई। मान वाप्पादित्य के हाथ से मारे गये और राजस्थान में मौर्य-कुल का अब कोई राजा न रहा। यह घटना विक्रमीय संवत् ७८४ की है। कोटा के कण्वाश्रम के शिवमन्दिर में एक शिलालेख संवत् ७९५ का पाया गया मौर्यवंश-चन्द्रगुप्त : ५५