पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५१

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आज के लिए नहीं कल के लिए एक बार मैंने, प्रसादजी से कहा-'भय्या, आपकी कविताएं किसी की समझ में नहीं आतीं। पढ़कर लोगों के मन में कुतूहल होता है, पर सन्तोष नहीं। उन्होंने कहा-'देखो, मैं जो कुछ लिखता हूँ वह आज के लिए नही कल के लिए है। पुरीयात्रा गंगा-सागर से लौटने के बाद लगभग दो सप्ताह प्रसादजी ने कलकत्ते में विश्राम किया। एक दिन पुरी-यात्रा के लिए भी अपनी इच्छा व्यक्त की। यात्रा की सारी व्यवस्था हो गई। इस बार भी उनके माथ उनका अपना दल था। इनके अतिरिक्त में मेरे अग्रज मेरी भाभी और श्री लालबिहारी खन्ना थे-पुरी में सागर तट पर उनका अपना मकान था । वही हम लोगों के ठहरने की व्यवस्था थी। इस यात्रा में हम लोग जितने दिन वहां रहे । 'प्रसादजी' मन्दिर में दर्शन करने प्रतिदिन जाते थे। उन्होंने समुद्र स्नान भी नित्य वि.या और समुद्र मे तेरे भी -पर महाप्रसाद उन्होंने ग्रहण नहीं किया, उसे प्रणाम कर लिया। महाप्रमाद (भगवान का भो।) खाने के लिए उन्होंने चि० रत्नशंकर को अपने स्थान पर बैठा दिया। मेरे पूछने पर उन्होंने कहा- इसमे मेरी अा नही है । एक दिन मन्दिर में हम लोग पूजा कर रहे थे। उसी समय 'प्रसाद' जी ने मुझसे पूछा-'तुम्हे कुछ अनुभव हो रहा है ?' मैने कहा-"भैया, मझे तो कुछ अनुभव नहीं हो रहा है। उन्होने दहा -'देखो, यहाँ एक विशेष प्रकार की सुगन्ध आ रही है, इगी को 'देवगन्ध' कहते है। इस प्रकार की गन्ध का अनुभव केवल इसी मन्दिर में होता है, अन्यत्र कही नहीं। प्रमादजी ने मुझे बताया कि यहाँ पर खण्ड गिरि और उदय गिरि नाम के पर्वत हे नहाँ पर ऋषियों ने हवन तथा तपस्या किया था, चलो देख, किन्तु प्रगादपी या ा पर जाने के पूर्व बहुत विचार करते कारण किसी प्रकार के काट से बहुत घबड़ ते. मने विचार मिया मि इनका ट्रेन से ना पर जाना ठीक नहीं होगा, कार ठीमिया जर पारा यम्म हु । प्रसाद जी ने कहा कि अब बताओ यदि तुम नही आने तो हा समय म केगे जाला और वे बहुत समय तक रुके और अनेक मन्दिरो का दर्शन किये, तथा उनके महत्व को बता रहे थे ऐसा लगा कि भारत के तमाम तीर्थ स्थानो का उन्हें पुरा ज्ञान है, हां राह में प्रसादजी ने कहा कि अब यहाँ ठहरो एक टूटा मकान दिखाई पड़ा यही विश्राम के लिए ठहर गये, प्रसादजी ने कहा यहां कुछ खाने की व्यवस्था हो सकती है, मेने कहा हां किन्तु साहस नही होता है कि आपको वहूं, क्योकि पुडी तो है किन्तु ताजी नही है-हंसते हुये प्रसादजी ने कहा गीघ्र निकालो तभी तो अत्यन्त स्वाद का अनुभव होगा। हम सब लोगों ने ग्रहण किया। जब उद गिरि पहुँचे तो स्थान को देखकर प्रसादजी अत्यन्त प्रसन्न हुये सायंकाल तक लौट आये। वहाँ गुफा में खुदे शिलालेख को मोमबत्ती जलवाकर ध्यान से देखा । (वह खारवेल का अभिलेख था-सं०) संस्मरण पर्व : २४७