पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५७१

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पता न घर वालों को दिया महीनों, पीछे स्वजनों का मन समझाने की कभी होमियोपैथिक औषध कोई खा लेते या सिरहाने रख लेते। पता चला कब सम्बन्धी, स्वजनों को ? जब आंखें धम चली गढ़ों मे। उचकी गालो जी हडिया और छाती की सारी ठठरी उभरी । शोणित सूखा, और देह हलदी के रंग में रंग ली। प्राञ्जल आशय, सङ्गतिशीला शैली, प्रबल निवेदन, मृदु समवेदन, सुस्वन, जग-जड़ता पर कवि का मानस-मन्थ : मार्गापेक्षी जगहित दिशि-निर्देशन, ऐसे उनके ग्रन्थ, मूक्तियां उनकी, गूंज गूंज कानों में बसी जगत के । और मुझे तो कभी कभी वह उनका देव-दिव्य शिशु-मूलभ हमी मे हैमना, लाल लाल होंठों का हास-नियोजन, और मन्द स्वर से गा गा कानों में कविताएँ ढालना स्मरण होते ही, छायावाही जगमग ग-नारक पर उन्हीं दिनों मी कोई सन्ध्या आकर मुझे रमा लेती है अपने मुख में । किन्तु गृहस्थी के कोलाहल सहमा मायिक आवेशों के जाल बिछा कर बन्दी कर लेते सत्त्वाशय मन को । दृग खुलने पर पलक-पाणि मल मल कर अपना-सा मुंह लिये हाय, रह जाते । अब न दिखाई देगी वैसी मेधा, वैसी धृति-व्यजना, धिना, क्षमता । अब न मिलेगा कुछ, जग को रोने रो उनकी स्मृति मे, क्योंकि उन्होंने समझा मंस्मरण पर्व : २६७