पृष्ठ:प्राचीन चिह्न.djvu/१०

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प्राचीन चिह्न


वह भिलसा से पॉच मील आगे है। स्तूपो ही के कारण वहाँ यह स्टेशन बना है। स्टेशन के पास बेगम साहबा ने, दर्शकों के सुभीते के लिए, एक डाक बंगला भी बनवा दिया है। सभ्य संसार को भिलसा के स्तूपो की सूचना, इस जमाने मे, सबसे पहले कनिहाम साहब ने दी, फिर फरगुसन साहब ने। १८५४ ईसवी मे कनिहाम साहब ने "भिलसा टोप्स' नाम की एक किताब लिखी। उसमे इन स्तूपो का विस्तृत वर्णन है और इनके और इनके अवयवों के सैकड़ों चित्र भी हैं। इसके अनन्तर डाकर फरगुसन ने एक किताब लिखी। उसका नाम है “वृक्ष और सर्पपूजा' (Trees and Serpent Worship)। इस किताब के आधे हिस्से मे इन स्तूपो का खूब पतेवार वर्णन है और साथ ही कोई ५० से भी अधिक चित्र भी हैं। इन्ही किताबो की बदौलत सभ्य-संसार ने इन स्तूपों को जाना; इनकी कारीगरी कुछ-कुछ उसकी समझ मे आई; भारत के प्राचीन वैभव का कुछ अनुमान उसको हुआ। तब से । योरप और अमेरिकावाले तक इन स्तूपो को देखने आते हैं। जिन लोगो ने दुनिया भर की सैर की है उनका मत है कि मिश्र के पिरामिडों ( स्तूपो ) को छोडकर संसार मे ऐसी कोई इमारत नही जिसे देखकर उतना आश्चर्य, आतङ्क और पूज्यभाव हृदय मे उत्पन्न होता है जितना कि भिलसा के स्तूपो को देखकर होता है। मूर्तिभञ्जक मुसलमानों ने इन स्तूपो पर भी हथौड़ा चलाया है और इनकी अनन्त मूत्तियों