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प्राचीन चिह्न


मारियाँ रक्खी थी। उनमे बहुमूल्य रत्न और अन्यान्य आश्चर्यजनक प्राचीन-काल की चीजे रक्खी रहती थीं। इस मकान के चारों तरफ़ एक बड़ा ही मनोहारी बखग़ीचा था। जगह-जगह पर फ़व्वारे अपने सलिलसीकर बरसाते थे। उनकी बूँदें बिल्लौर के समान चमकती हुई भूमि पर गिरकर बड़ा ही मधुर शब्द करती थी। फ़व्वारे के किनारे-किनारे माधवी-लतायें कलियों से परिपूर्ण शरद् ऋतु की चाँदनी का आनन्द देती थी। फ़व्वारो के कारण दूर-दूर तक की वायु शीतल हो जाती थी। जहाँ-तहाँ सघन वृक्षो की कुञ्जे थी, जिनमे सङ्गमर की मूर्तियाँ रक्खी हुई थीं।

आगे चलकर गर्मियों में रहने के लिए एक मकान था, जिसे हम “मदन-विलास" कह सकते हैं। पाठक, कृपा करके इसके भी दर्शन कर लीजिए। इसकी भी सजावट अपूर्व थी। इसमे जो मेज़े थी वे देवदारु की सुगन्धित लकड़ी की थी। उन पर चाँदी-सोने के तारों से तारकशी का काम था। सोने-चॉदी की रत्नजटित कुसियाँ भी थी। उन पर रेशमी झालरदार गहियाँ पड़ी हुई थी। कभी-कभी मिहमान लोग इसमे भी भोजन करते थे। भोजनोपरान्त वे चॉदी के बरतनों मे हाथ धोते थे। उसके बाद बहुमूल्य शराब, सोने के प्यालो मे, उड़ता था। पानोत्तर माली प्रसूनस्तबक मिह- मानों को देता था और सुमनवर्षा होती थी। अन्त मे नृत्य आरम्भ होता था। इसी गायन-वादन के मध्य मे इत्र-पान