वहाँ की पर्वत-श्रेणी के ढालू होने, और मैदान की ओरवाले
भाग के भीतर उनके बनाये जाने के कारण इन गुफाओं मे.
प्रायः सभी के सामने सहन हैं। इन गुफाओं के भीतर बने
हुए मन्दिरों के कारुकर्म को देखकर बड़े-बड़े यञ्जिनियर
और बड़े-बड़े शिल्प-निपुण कारीगरों की बुद्धि चक्कर खाने
लगती है। इनके रङ्गीन चित्र, रङ्गीन बेल-बूटे, भाव-भरी
मूर्तियाँ और भॉति-भॉति की जालियाँ देखकर देखनेवालों
की चित्तवृत्ति स्थगित और स्तम्भित हो जाती है। मूर्तिद्रोही,
अन्य धर्मावलम्बी, अन्य देशवासी लोगो के भी मुख से इन
मन्दिरों की स्तुति सुनकर हृदय मे एक अपूर्व भक्ति-भाव का
उदय हो उठता है। फर्गुसन, बयंस और बाड्रिलर्ट ने तो
इनके स्तुतिपाठ से भरी हुई पुस्तके लिख डाली हैं। एक
साहब लिखते हैं कि “यलोरा के ये प्राचीन मन्दिर, इस
समय, दैवात् उजाड़ अवस्था मे पड़े रहने पर भी मनुष्य की
कल्पना को व्याकुल कर देते हैं। वह यही नहीं स्थिर कर
सकती कि किस प्रकार ये मन्दिर मनुष्य से बनाये गये
होगे। इन मन्दिरों के सामने खड़े होकर यदि कोई कुछ
लिखना चाहे तो कलम पकड़ने के लिए हाथ ही नही
उठता। इन विस्मयोत्पादक और भव्य मन्दिरो को देखने
से प्राचीन भारतवासियो के शिल्पकौशल और धर्म-प्रवणता
का मूर्तिमान् चित्र नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हो जाता है।
महा मनोहारिणी चित्रकारी और शिल्प कर्म के सुक्ष्म से
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प्राचीन चिह्न