उसी के अनन्तर होनेवाले कृष्णराज ने उसमे प्रतिष्ठित शिव-
मूर्ति को फिर से अलङ्कत किया। पूर्वोक्त श्लोकों मे जो
शिवमन्दिर की प्रशंसा है वह कैलाश नामक मन्दिर के लिए
अधिक उपयुक्त है, दशावतार के लिए नहीं, क्योंकि कैलाश
ही सबसे बड़ा मन्दिर है। नही मालूम, यह शिलालेख
दशावतार पर कैसे आया।
दशावतार की मूर्तियाँ अवलोकनीय हैं। इस मन्दिर का
एक भाग केवल विष्णु के अवतारों के लिए रक्खा गया है।
उसमे पहले कृष्ण की मूर्ति है। उसके छः हाथ हैं, उन पर
गोवर्द्धन रक्खा है; नीचे गो, गोप और गोपियाँ खड़ी हैं।
फिर शेष पर नारायण की मूर्ति है। उसके आगे गरुड़ पर
विष्णु, पृथ्वी को लिये हुए वराह, याचक के वेष में वामन;
हिरण्यकशिपु को हनन करते हुए नृसिह है। द्वार पर
विशाल-काय द्वारपाल हैं। मन्दिर के दूसरे भाग में शिव
का साम्राज्य है। वहाँ पर, कही काली के ऊपर खड़े हुए
भैरव दर्शकों को भयभीत कर रहे हैं; कही अपने विकटाकार
गणों को लिये हुए अष्टभुज त्रिलोचन ताण्डव मे निमग्न हैं;
कही शान्तिमूर्ति शिव पार्वती के साथ चौपड़ खेल रहे हैं; कहीं
कैलाश-समेत शिव और पार्वती को उठा ले जाने के लिए लड्के-
'श्वर रावण को यत्न करते देख नन्दी, भृङ्गी आदि गण उसका
उपहास कर रहे हैं; और कहीं सदाशिवजी मार्कण्डेय पर
अपना वरद हस्त रखकर यमराज को त्रिशूल की नोक दिखा