रहे हैं। तीसरी तरफ़ लक्ष्मी की एक मूर्ति है; उस पर चार
हाथी जलाभिषेक कर रहे हैं। चार पुतलियों के ऊपर कमलासन
है; उसी पर लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित है। चार शरीर-रक्षक
प्रतिमा के सामने खड़े हैं। वे सब शस्त्रो से सज्जित हैं; और
कलश, शङ्ख, चक्र और कमल भी लिये हुए हैं। पास ही विष्णु
की एक मूर्ति है, त्रिशूल और कमल हाथ मे है; एक विशाल
पक्षी मूर्ति के दाहिने हाथ से कुछ खा रहा है; वाई तरफ़ एक
खर्वाकार बौना खड़ा है। चौथी तरफ़, फिर शिव की एक मूर्ति
है, जिसके दोनों ओर से ज्वाला निकल रही हैं। पास ही विष्णु
हैं, वे शिव की पूजा कर रहे हैं । ब्रह्मा भी वही हैं; वे ऊपर
उडकर शिव के शीश का पता लगाने का यन कर रहे हैं।
वराह भी वही हैं। वे मूर्ति के नीचे पृथ्वी खोदकर उसके
निचले भाग का पता लगाना चाहते हैं। यह दृश्य एक पौरा-
णिक प्रसङ्ग का सूचक है। महिम्न के “तवैश्वर्य यत्नाद्यदुपरि
विरिञ्चो हरिरधः" इस श्लोक मे इसी दृश्य का उल्लेख है।
दशावतार भी पहाड़ को काटकर उसके भीतर बनाया
गया है। उसकी छत और खम्भो पर आश्चर्यकारक काम
है। खम्भे बहुत बड़े और मोटे हैं, उन पर बारीक बेल-बूटे
कढ़े हुए हैं; और अनेक छोटी-बड़ी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। उनको
चित्र में देखकर ही चित्त विस्मित होता है, प्रत्यक्ष देखने पर
देखनेवालों के मन मे क्या भाव उदित होगा, यह देखने ही से
जाना जा सकता है।