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प्राचीन चिह्न


कर शायद ही और कोई इस क्रिया-काण्ड के द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखता हुआ यज्ञीय पशु बाँधने के लिए यूप काम में लाता हो। जिस काम के लिए यूप गाड़े जाते थे वह लकड़ी ही के यूप से अच्छी तरह हो जाता था। पशु बाँधने के लिए पत्थर तराशने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ईसापुर के यूप उस यज्ञीय स्तूप की केवल यादगार हैं। वे पत्थर के इसलिए बनाये गये हैं कि बहुत समय तक बने रहे और यज्ञकर्ता के यज्ञ की याद दिलाते रहे। लकड़ी के स्तूप गाड़ने से वर्ष ही दो वर्ष मे सड़कर वे नष्ट हो सकते है।

अच्छा, ये यूप हैं क्या चीज ? शतपथ ब्राह्मण से तो यही मालूम होता है कि ये पशु बाँधने के लिए यज्ञशाला में गाड़े जाते थे। इनको अपनी वर्तमान भाषा हिन्दी में क्या कहना चाहिए। खूटा तो कही नही सकते, क्योंकि वेदवेत्ता ब्राह्मण विद्वानों की राय है कि खूटा कहने से यूपों की अप्रतिष्ठा होती है। इसी डर से हमने इस लेख मे वैसा नही किया। अब वही कृपा करके बतावे कि ये “यूप" हिन्दी में भी यूप ही रहे या इनके लिए वे और कोई प्रतिष्ठासूचक नाम चुन देगे। इन यूपो से जो पशु बाँधे जाते थे उनके लिए “वध" शब्द का प्रयोग भी वेदज्ञ विद्वान् अनादरसूचक समझते हैं। “गवालम्भ"-वाला आलम्भ शब्द शायद उन्हे ऐसे पशु के लिए विशेष प्रतिष्ठाजनक ज्ञात हो। इस प्रतिष्ठीजनक शब्द-प्रयोग से शायद उस पशु का कुछ हित,