पृष्ठ:प्राचीन चिह्न.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४३
ईसापुर के यूप-स्तम्भ


हो सकता हो। लोक में तो जेल को ससुराल कहने से भी कैदियों का कुछ भी उपकार नहीं होता।

ये यूप किस तरह काटे जाते थे ? किस तरह गढ़े जाते थे ? कब, किस जगह और किस तरह गाड़े जाते थे ? उनकी संख्या कितनी होती थी ? उन्हे काटने, गढ़ने, गाड़ने और उनकी पूजा करने में कौन-कौन किन-किन मन्त्रों का उच्चारण करता था ? पशु को कौन और किस तरह बॉधता तथा पूजता था ? यूप से बाँधे हुए पशु का वहीं अालम्भ होता था या खोलकर दूसरी जगह ? किसी शस्त्र से काम लिया जाता था या पाश से ? ये सब बातें शास्त्रज्ञ पण्डितों के “म्लेच्छो" ने अन्य भाषाओं में लिख डाली हैं। पर उनके कथन का अनुवाद करने का साहस नहीं होता। डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाय । शतपथ ब्राह्मण में ये सब बाते विधिपूर्वक लिखी हुई हैं। सायण, हरिस्वामी और द्विवेद- गङ्ग ने अपनी टीकाओं मे इन बातों को और भी विशद रीति से समझा दिया है। पर हम वेदज्ञ और ब्राह्मणज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते। इस कारण हम उनके आधार पर भी किसी तरह कुछ लिखकर वेद-वेत्ताओ का जी नही दुखाना चाहते। भूले हो जाने का उसमें भी डर है। आशा है, वेदवेत्ता विद्वान अपनी क्रिया-शीलता के कुछ अंश का प्रयोग इधर भी करके केवल हिन्दी जाननेवालों की अवगति के लिए इन बातों को सविस्तर प्रकाशित करने की कृपा करेगे। न