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प्राचीन चिह्न


के किनारे वहाँ पहले एक बहुत मज़बूत किला था। उसका चिह्न-मात्र अब रह गया है। किसी समय यह नगर कन्नोज-्राज जयचन्द के अधिकार में था। यहाँ पर बहुत पुराने समय के कितने ही सिक्के मिले हैं, जो कलकत्ते के अजायबघर में रक्खे हैं। १०३५ ईसवी का खुदा हुआ राजा यशःपाल का एक शिलालेख भी यहाँ मिला है।

ख्वाजा करक नामक एक आलिया की यहाँ प्रसिद्ध कब्र है। १३०९ ईसवी मे उसकी मृत्यु हुई थी। अलाउद्दीन मुहम्मद खिलजी ने जिस समय अपने चचा जलालुद्दीन मुहम्मद खिलजी को मारा था उस समय ख्वाजा करक जीते थे। एक और भी कब्र यहाँ पर है। वह कमाल खॉ की है।

कड़े के भग्नावशेष गङ्गा के किनारे-किनारे कोई दो मील तक देख पड़ते हैं। पहले यह बहुत बड़ा शहर था। अनेक कब्रो, मसजिदें और ईदगाहे यहाँ अब तक है। मुग़ल-बाद-शाहों के सूबेदार पहले यही रहते थे। जब से अकबर ने इलाहाबाद में किला बनवाया तब से सूबेदारी वहाँ उठ गई और कड़े की अवनति प्रारम्भ हुई। इस समय वहाँ पृथ्वी के पेट में जितने मुर्दे गड़े हुए हैं उससे बहुत कम मनुष्य जीवित अवस्था में पृथ्वी के ऊपर है।

अरैल

इलाहाबाद से चार मील दूर एक जगह अरैल है। उसका प्राचीन नाम अलर्कपुरी है । पर उसका पूर्वेतिहास बिलकुल ही