पृष्ठ:प्राचीन चिह्न.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५७
खुजराहों


पहाड़ी किले मे चला गया। वहाँ से, कुछ काल के अनन्तर, उसने, या उसकी सन्तति ने, महोबा में रहना पसन्द किया । बारहवे शतक के अन्त तक चन्देलवंशी राजों ने अपनी राज-धानी महोबा में रक्खी। वहाँ पर विजयपाल, कीर्तिवर्मा और मदनवर्मा के राजत्व के सूचक विजय-सागर, कीर्ति- सागर और मदन-सागर नाम के तालाब अब तक बने हुए हैं। तेरहवे शतक के आरम्भ मे कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालपी और महोबा को अपने अधिकार मे कर लिया। तव से चन्देल राजे हमेशा के लिए कालिजर मे रहने लगे। जब तक चंदेले महोबा मे रहे तब तक खजुराहो की अवनति धीरे-धीरे होती रही। परन्तु जब उन्होंने महोबा छोड़ दिया और मुसल्मानों ने वहाँ पर अपना कदम जमाया तब से खजुराहो की लक्ष्मी ने उसे छोड़ जान मे बहुत जल्दी की, और शीघ्र ही उसे प्रायः पूरी तौर पर परित्याग कर दिया। १३३५ ईसवी, अर्थात् इब्न बतूता के समय, तक खजुराहो में “दुबले-पतले जटाधारी अनेक योगी-यती विद्यमान थे।" परन्तु अकबर के समय में वे भी न रह गये। क्योकि आईने- अकबरी मे खजुराहो का कही नाम नही । उन्नीसवे शतक के प्रारम्भ, अर्थात् १८१८ ईसवी, मे फ़कलिन नाम के एक साहब ने, वहाँ पर, बिलकुल जङ्गल पाया था। ये साहब बन्दोबस्त के महकमे से सम्बन्ध रखते थे। इन्होने इस प्रान्त के नक्शे मे “कजरौ" लिखकर उसके आगे “उजाड़",