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प्राचीन चिह्न


तेदुवे और जङ्गली कुत्ते घूमा करते हैं। हिन्दुओं और जैनियों के पुराने मन्दिर इसी गहन वन के भीतर हैं। उनमे से बहुतेरे प्राय: भग्न अवस्था में हैं। किले के नीचे, या यों कहना चाहिए कि पहाड़ी के नीचे, बेतवा नदी की धारा ऊँची-ऊँची चट्टानों के बीच से बहती है। बरसात मे जब यह नदी बढ़ती है तब चट्टानो में कर खाने से भयङ्कर शोर मचाती है। नदी से थोड़ी दूर पर एक छोटा सा गाँव है। उसमे भी दो-एक पुराने मन्दिर हैं। गॉव में विशेष करके जङ्गली आदमी रहते हैं। उनका नाम सहरिया है। वे बहुधा शिकार पर, अथवा जङ्गल में पैदा होने-वाले गोंद, शहद और वन-फलो पर अपना निर्वाह करते हैं । कोई-कोई खेती भी करते हैं और कत्था बनाकर देहाती बनियों के हाथ बेचते है। ये लोग बहुत असभ्य है। देखने में बिलकुल काले, अतएव डरावने, मालूम होते हैं। इनके सिर के बाल बढ़कर चेहरे के इधर-उधर बेतरह लटका करते हैं। इनकी कमर में एक छोटा सा चीथड़ा लिपटा रहता है। उसी में ये लोग एक हँसुवा खांसे रहते है।

सहरिया लोग हिन्दरतान के पुराने जड़ली आदमियों में से हैं। इनका नाम संस्कृत मे शबर है। इस नाम का उल्लंख वेदों तक में पाया जाता है। महाभारत मे लिखा है कि ये लोग बड़े भयानक थे; पर 'पाण्डवो ने इनको भी परारत किया। वराहमिहिर ने शबरी के दो भेद लिखे हैं——