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देवगढ़ की पुरानी इमारतें


तरफ, गुप्त समय के अक्षरों में अनेक लेख हैं। मन्दिर के सामने बडे-बड़े दो खम्भों के ऊपर एक तोरण था। अनुमान किया जाता है कि वह महाराज भोजदेव के समय, अर्थात् ८५३ ईसवी के लगभग, बना था। पीछे से किसी ने इस तारण में दो की जगह चार खम्भे कर दिये और उसे पेशगाह अर्थात उसारे की शकल का कर दिया। प्रदक्षिणा के भीतर, सब कहीं, पत्थर का काम बहुत अच्छा है। शिल्प कौशल का यह एक अद्भुत नमूना है। जगह-जगह पर इसमे ताक बने हुए हैं। उनमे देवी की मूर्तियाँ हैं और प्रत्येक देवी का नाम पुराने नागरी अक्षरों मे उसके नीचे खुदा हुआ है।

चन्देल-राजों में एक राजा कीर्तिवर्मा हुआ है। उसका समय १८४९ से ११०० ईसवी तक है। उसके मन्त्री वत्सराज ने देवगढ़ मे राज-घाटी नामक सीढ़ियों का एक समूह, किले से बेतवा तक, बनवाया था। राज-घाटी मे कीर्तिवर्मा के समय, अर्थान् संवत् ११५६, काएक लम्बा शिला-लेख है। उससे सूचित होता है कि वत्सराज ने देवगढ़ के किले की मरम्मत कराकर उसका नाम कीर्तिगिरि-दुर्ग रक्खा था। किले की दीवार १५ फुट मोटी है। उसमे जगह-जगह पर बुजें बनी हुई हैं और तीरों की वर्षा के लिए दीवारो मे छेद हैं। राजघाटी की दाहिनी तरफ़ सप्त-मातृका, महादेव और सूर्य की मूर्तियाँ है।

इन सब इमारतों में दशावतार के मन्दिर का काम विशेष प्रशंसा के योग्य है। उसके प्रवेश-द्वार पर कला-कौशल,