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चतुर्थ सर्ग



नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष - पात-निपुणा भ्रूभगिमा - पंडिता ।
वादिवादि समोद - वादन : परा आभूपणभूषिता ।
राधा थी सुमुखी विशाल - नयना आनन्द-आन्दोलिता ॥३॥

लाली थी करती सरोज - पग की भूपृष्ठ को भूपिता ।
विम्बा विद्रम को अकान्त करती थी रक्तता ओष्ट की ।
होत्फुल्ल - मुखारविन्द - गरिमा सौदर्यआधार थी ।
राधा की कमनीय कान्त छवि थी कामांगना मोहिनी ॥७॥

सवस्त्रा - सदलकृता गुणयुता - सर्वत्र सम्मानिता ।
रोगी वृद्ध जनोपकारनिरता सच्छास्त्र चिन्तापरा ।
सद्भावातिरता अनन्य:- हृदया सत्प्रेम - संपोपिका ।
राधा थी सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति - रत्नोपमा ॥८॥

द्रुतविलंबित छन्द
यह विचित्र - सुता वृपभानु की।
व्रज - विभूपण मे अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुन्दर - बालिका।
परम - कृष्ण - समर्पित-चित्त थी॥९॥

ब्रज - धराधिप औ वृपभानु मे ।
अतुलनीय परम्पर - प्रीति थी ।
इसलिए उनका परिवार भी ।
बहु परस्पर प्रेम - निबद्ध था ॥१०॥

जब नितान्त - अबोध मुकुन्द थे ।
विलसते जब केवल अक में ।
वह तभी वृषभानु निकेत मे ।
प्रति समादर साथ गृहीत थे ॥११॥