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चतुर्थ सर्ग

जन मन कलपाना में बुग जानती हूँ ।
परदुख अवलोके में न होती सुनी हैं ।
कहकर कटु वाने जी न भूले जलाया ।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्या ? ॥३०॥

अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी ।
प्रिय स्वजन किसी के क्या न जात कही है ।
पर हृदय न जाने दग्ध क्या हो रहा है ।
सब जगत में है शुन्य होता दिखाना ॥३१॥

यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं ।
यह सदन हमारा, हैं हमे काट खाता ।
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है ।
विजन-विपिन में हैं भागता सा दिखाना ॥३२॥

मदनरत न जाने कौन स्यो है बुलाना ।
गति पलट रही है भाग्य की क्या हमारे ।
उस! कसक समाई जा रही है कहाँ की ।
सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है ।।३३।।

मधुपुर-पति ने है प्यार ही मे बुलाया ।
पर पुशल हमे तो न होती दिखाती ।
प्रिय-बिरह - घटायें घेरती आ रही हैं ।
घहर घहर देखो हैं, कलेजा कांपाती ॥३४।।

हृदयय चरण में तो में चढ़ा ही चुकी हैं ।
सविधि - यग्णु की थी कामना और मेरी ।
पर सफल हमे हो हैं न होती दिखाती ।
वह, कब टलता है भाग्य में जो लिया हैं ॥३५॥