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चतुर्थ सर्ग

और रह रह किरणें जो फुटती है दिखाई ।
वह मिप उनके व्या ठोश बने हमें हैं ।
कर वह अथवा यो शान्ति का बढ़ाने ।
विपुल - व्यथित जीयो की व्याथा मोचने को ।।४३।।

दुख - अनल - शिखायें व्योम में फूटती है।
यह किस दुनिया का हैं कलेजा जलाती ।
ग्रहह अहह देखो दृटता है न तारा ।
पतन दिलजले के गान का हो रहा है ।।४३।।

चमक चमक तारे धीर देते हमें है।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंग?
पर - दिन - रात - होए ठौर को जो न छोड़ें ।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी ।।४४।।

उदुगण थिर से क्यो हो गये दीखते हैं ।
यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है ?
रह! रह! इनमें क्यो रंग आ जा रहा है ।
कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है ।।४५।।