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प्रियप्रवास

जो भूरि भूत जनता समवेत वॉ थी ।
सो कंस भूप भय से बहु कातरा थी ।
संचालिता विषमता करती उसे थी। ।
संताप की विविध - संशय की दुखो की॥१७॥

नाना प्रसंग उठते जन-संघ मे थे ।
जो थे सशंक सबको बहुश बनाते ।
था सूखता अधर औ कॅपता कलेजा ।
चिन्ता-अपार चित मे चिनगी लगाती ॥१८॥

रोना महा - अशुभ जान प्रयाण - काल ।
ऑसू न ढाल सकती निज नेत्र से थी ।
रोये बिना न छन भी मन मानता था ।
डूबी द्विधा जलधि मे जन-मण्डली थी ।।१९।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
आई बेला हरि - गमन की छा गई खिन्नता सी ।
थोड़े ऊँचे नलिनपति हो जा छिपे पादपो मे ।
आगे सारे स्वजन करके साथ अक्रूर को ले ।
धीरे धीरे सजनक कढ़े सम मे से मुरारी ॥२०॥

आते ऑसू अति कठिनता से सँभाले हगो के ।
होती खिन्ना हृदय - तल के सैकडो संशयो से ।
थोड़ा पीछे प्रिय तनय के भूरि शोकाभिभूता ।
नाना वामा सहित निकली गेह मे से यशोदा ।।२१।।

द्वारे आया व्रज नृपति को देख यात्रा निमित्त ।
भोला भोला निरख मुखड़ा फूल से लाडिलों का ।
खिन्ना दीना परम लख के नन्द की भामिनी को ।
चिन्ता'डूबी सकल जनता हो उठी कम्पमाना ।।२२।।