पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पञ्चम सरला

दोनो प्यारे कुँवर वर को यान पै देख बैठा ।
आवेगो से विपुल विवशा हो उठी नन्दरानी ।
ऑसू आते युगल दृग से वारिधारा बहा के ।
बोली दीना सदृश पति से दग्ध हो हो दुखो से ॥४७॥

मालिनी छन्द
अहह दिवस ऐसा हाय! क्यो आज अाया ।
निज प्रियसुत से जो मै जुदा हो रही हूँ ।
अगणित गुणवाली प्राण से नाथ प्यारी ।
यह अनुपम थाती मै तुम्हे सौपती हूँ ॥४८।।

सव पथ कठिनाई नाथ है जानते ही ।
अव तक न कहीं भी लाडिले है पधारे ।
मधुर फल खिलाना दृश्य नाना दिखाना ।
कुछ पथ - दुख मेरे वालको को न होवे ।।४९।।

खर पवन सतावे लाडिलो को न मेरे ।
दिनकर किरणो की ताप से भी बचाना ।
यदि उचित जॅचे तो छोह मे भी विठाना ।
मुख - सरसिज ऐसा म्लान होने न पावे ॥५०॥

विमल जल मॅगाना देख प्यासा पिलाना ।
कुछ क्षुधित हुए ही व्यजनो को खिलाना ।
दिन वदन सुतो का देखते ही विताना ।
विलसित अधरो को सूखने भी न देना ।।५१।।

युग तुरग सजीले वायु से वेग वाले ।
अति अधिक न दौडे यान धीरे चलाना ।
बहु हिल कर हाहा कष्ट कोई न देवे ।
परम मृदुल मेरे वालको का कलेजा ।।५२।।