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प्रियप्रवास

सारी बाते सदुख सुन के नन्द ने कामिनी को ।
प्यारे प्यारे वचन कह के धीरता से प्रवोधा ।
आई थी जो सकल जनता धैर्य दे के उसे भी ।
वे भी बैठे स्वरथ पर जा साथ अक्रूर को ले ॥६५॥

घेरा आके सकल जन ने यान को देख जाता ।
नाना बाते दुखमय कहीं पत्थरो को रुलाया ।
हाहा खाया वहु विनय की और कहा खिन्न हो के ।
जो जाते हो कुँवर मथुरा ले चलो तो सभी को ।।६६।।

बीसो बैठे पकड़ रथ का चक्र दोनो करो से ।
रासे ऊँचे तुरग युग की थाम ली सैकड़ो ने ।
सोये भू मे चपल रथ के सामने आ अनेको ।
जाना होता अति अप्रिय था बालकां का सबो कां ॥६७॥

लोगो को यो परम-दुख से देख उन्मत्त होता ।
नीचे आये उतर रथ के नन्द औ यो प्रबोधा ।
क्यो होते हो विकल इतना यान क्यो रोकते हो ।
मै ले दोनो हृदय धन को दो दिनो मे फिरूँगा ॥६८॥

देखो लोगो, दिन चढ गया धूप भी हो रही है ।
जो रोकोगे अधिक अव तो लाल को कष्ट होगा ।
यो ही वाते मूदुल कह के औ हटा के सबो को ।
वे जा बैठे तुरत रथ मे औ उसे शीघ्र हॉका ॥६९।।

दोनो तीखे तुरग उचके औ उड़े यान को ले ।
आशाओ मे गगन-तल मे हो उठा शब्द हाहा ।
रोये प्राणी सकल ब्रज के चेतनाशून्य से हो ।
सज्ञा खो के निपतित हुई मेदिनी मे यशोदा ।।७०।।