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प्रियप्रवास

जी होता है विकल मुँह को पा रहा है कलेजा ।
ज्वाला सी है ज्वलित उर मे अवती मै महा हूँ ।
मेरी आली अब रथ गया दूर ले सॉवले को ।
हा! ऑखो से न अब मुझ को धूलि भी है दिखाती ।।७७।।

टापो का नाद जव तक था कान में स्थान पाता ।
देखी जाती जब तक रही यान ऊँची पताका ।
थोड़ी सी भी जब तक रही व्योम मे धूलि छाती ।
यो ही बाते विविध कहते लोग ऊबे खड़े थे ।।७८॥

द्रुतविलम्बित छन्द

तदुपरान्त महा दुख मे पगी ।
बहु विलोचन वारि विमोचती ।
महरि को लख गेह सिधारती ।
गृह गई व्यथिता जनमंडली ‌‌।।७९।।

मन्दाक्रान्ता छन्द

धाता द्वारा स्मृजित जग मे हो धरा मध्य आके ।
पाके खोये विभव कितने प्राणियो ने अनेको ।
जैसा प्यारा विभव व्रज ने हाथ से आज खोया ।
पाके ऐसा विभव वसुधा मे न खोया किसी ने ॥८०॥