पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
षष्ठ सर्ग

मन्दाक्रान्ता छन्द

धीरे धीरे दिन गत हुआ पद्मिनीनाथ डूबे।
दोपा आई फिर गत हुई दूसरा वार आया।
यो ही बीती विपुल घडियाँ औ कई वार बीते।
कोई आया न मधुपुर से औ न गोपाल आये॥१॥

ज्यो ज्यो जाते दिवस चित का क्लेश था वृद्धि पाता।
उत्कण्ठा थी अधिक बढती व्यग्रता थी सताती।
होती आके उदय उर मे घोर उद्विग्नताये।
देखे जाते सकल ब्रज के लोग उद्भ्रान्त से थे॥२॥

खाते पीते गमन करते बैठते और सोते।
आते जाते वन अवनि मे गोधनो को चराते।
देते लेते सकल ब्रज की गोपिका गोपजो के।
जी मे होता उदय यह था क्यो नही श्याम आये॥३॥

दो प्राणी भी ब्रज-अवनि के साथ जो बैठते थे।
तो आने की न मधुवन से बात ही थे चलाते।
पूछा जाता प्रतिथल मिथ व्यग्रता से यही था।
दोनो प्यारे कुँवर अब भी लौट के क्यो न आये॥४॥

आवासो मे सुपरिसर मे द्वार मे बैठको मे।
बाजारो मे विपणि सब मे मंदिरो मे मठो मे।
आने ही की न ब्रजधन के बात फैली हुई थी।
कुजो मे औ पथ अ-पथ मे बाग मे औ वनो मे॥५॥