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षष्ठ सर्ग

प्रति दिन कितनो को पथ मे भेजती थीं ।
निज प्रिय सुत आना देखने के लिये ही ।
नियत यह जताने के लिये थे अनेको ।
सकुशल गृह दोनो लाडिले आ रहे है ॥१२॥

दिन दिन भर वे आ द्वार पै बैठती थी ।
प्रिय पथ लखते ही वार को थी बिताती ।
यदि पथिक दिखाता तो यही पूछती थी ।
मम सुत गृह आता क्या कही था दिखाया ।।१३।।

अति अनुपम मेवे औ रसीले फलो को ।
बहु मधुर मिठाई दुग्ध को व्यञ्जनो का ।
पथश्रम निज प्यारे पुत्र का मोचने को ।
प्रतिदिन रखती थीं भाजनो मे सजा के ।।१४‌।।

जब कुँवर न आते वार भी वीत जाता ।
तब बहु दुख पा के बॉट देती उन्हें थी ।
दिनदिन उर मे थी वृद्धि पाती निराशा ।
तम निविड़ हगो के सामने हो रहा था ॥१५॥

जब पुरबनिता आ पूछती थी सँदेसा ।
तब मुख उनका थी देखती उन्मना हो ।
यदि कुछ कहना भी वे कभी चाहती थी ।
न कथन कर पाती कंठ था रुद्ध होता ।।१६।।

यदि कुछ समझाती गेह की सेविकाये ।
वन विकल उसे थी ध्यान मे भी न लाती ।
तन सुधि तक खोती जा रही थी यशोदा ।
अतिशय विमना औ चिन्तिता हो रही थी ॥१७॥