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प्रियप्रवास

यदि कवि करने को बैठती दासियाॅ थी ।
गयन स्व उन्हें था चैन लेने न देता।
यह कह कह के ही रोक देतीं उन्हें वे ।
तुम सब मिल के क्या कान को फोन दोगी ।।१८।।

दुख - वश सब धंधे बन्द ने हो गये थे ।
गृह जन मन मारे काल को ये बिताते ।
हरि-जननि-व्यथा से मौन थी शारिकायें ।
सकल सदन में ही छा गई थी उदासी ।।१९।।

प्रति दिन कितने ही देवता थी मनाती ।
बहु बजन कराती विप्र के वन्द में थी ।
निज घर पर कोई ज्योतिषी थी बुलाती ।
निज प्रिय सुत प्राना पुछने को यशोदा ॥२०॥

सदन टिग कहीं जो डोलता पत्र भी था ।
निज श्रवण उठानी भी नमुत्कण्ठिता हो ।
कुछ रज उठती जो पथ के मध्य योही ।
बन अयुन दृगी तो व उसे देखनी थी ॥२१॥

गृह दिशि यदि कोई शीघ्रता साथ आता ।
तब उभय करो से थामतीं वे कलेजा ।
जब यह दिखलाता दुसरी ओर जाता ।
तब उदय करो से ढॉपती थी दृगो को ।।२२।।

मधुवन पथ से वे तीव्रता साथ आता ।
यदि नभ तल मे थी देख पाती पखेरू ।
उस पर कुछ ऐसी दृष्टि तो डालती थी ।
लख कर जिसको था भग्न होता कलेजा ॥२३॥