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पष्ठ सर्ग

पथ पर न लगी थी दृष्टि ही उत्सुका हो ।
न हृदय तल ही की लालसा वर्द्धिता थी ।
प्रतिपल करता था लाडिलों की प्रतीक्षा ।
यक यक तन रोआॅ नॅद की कामिनी का ।।२४।।

प्रतिपल दृग देखा चाहते श्याम को थे ।
छनछन सुधि प्राती श्यामली मूर्ति की थी ।
प्रति निमिप यही थी चाहती नन्दरानी ।
निज वदन दिखावे मेघ ली कान्तिवाला ॥२५॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
रो रो चिन्ता-सहित दिन को राधिका थी बिताती ।
अॉखो को थी मजल रसती उन्मना थी दिखाती ।
शोभा वाले जलद - वपु की हो रहो चातकी थी ।
उत्कण्ठा थी परम प्रबला वेदना वर्द्धिता थी ।।२६ ।।

बैठी खिन्ना यक दिवस व गेह मे थीं अकेली ।
आके ऑसू दृग-युगल मे थे वरा को भिगोते ।
आई धीरे इस सदन मे पुष्प-सद्गध को ले ।
प्रात वाली सुपवन इसी काल वातायनो से ॥२७॥

आके पूरा सदन उसने सौरभीला बनाया ।
चाहा सारा - कलुप तन का राधिका के मिटाना ।
जो बूँदे थी सजल दृग के पक्ष्म में विद्यमाना ।
धीरे धीरे तिति पर उन्हें सौम्यता से गिराया ॥२८॥

श्री राधा को यह पवन की प्यार वाली क्रियाये ।
थोडी सी भी न सुखद हुई हो गई वैरिणी सी ।
भीनी भीनी महँक मन की शान्ति को सो रही थी ।
पीडा देती व्यथित चित को वायु की स्निग्धताथी ।।२९।।