पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४
प्रियप्रवास

संतापो को बिपुल बढ़ता देख के दु:खिता हो ।
धिरे बोली सदुख उससे श्रीमती राधिका यो ।
प्यारी प्रान पवन इतना क्यो मुझे है, से सताती ।
क्या तू भी है कन्टुपिन हुई काल की क्रूरता से ॥३०।।

कालिन्दी के कल पुलिन पै घुमती रिक्त होती ।
प्यारे प्यारे कुसुम-मय को चूमती गंध लेती ।
तू आती है बहन करती वारि के सीखरो को ।
हा! पापिष्टे फिर किस लिये ताप देती मुझे है ॥३१॥

क्या होती, निठुर इतना क्या बढाती व्यथा है ।
तु है मेरी चिर परिचिता न हमारी प्रिया है ।
मेरी बातें सुन मन सता छोड द बामना को ।
पीड़ा खो के प्रणतजन की है बडा पुगय होता ।।३२।।

मेरे प्यारे नब जलद मे कंज से नेत्रवाले ।
जाके आये न मधुवन मे श्री न भेजा संदेसा ।
मैं रो रो के प्रिय - विरह में बावली हो रही हूँ ।
जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को त सुना दे ॥३३॥

हो पाये जो न यह तुझसे तो क्रिया चातुरी से ।
जाके रोने विकल बनने आदि ही को दिखा दे ।
चाहे ला दे प्रिय निकट से वस्तु कोई अनूठी ।
हा! हा! मैं हूं मृतक बनती प्राण मेरा बचा दे ॥३४॥

तू जाती है सकल थल ही वेगवाली बड़ी है ।
तू है सीधी तरल हृदया ताप उन्मूलती हैं ।
मैं हूँ जी में बहुत रखती वायु तेरा भरोसा ।
जैसे हो ऐ भगिनि बिगड़ी बात मेरी वना दे ॥३५।।