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प्रियप्रवास

जो पुष्पो के मधुर - रस को साथ आनन्द बैठे ।
पीते होवें भ्रमर भ्रमरी सौम्यता तो दिखाना ।
थोड़ा सा भी न कुसुम हिल औ न उद्धिम वे हों ‌।
क्रोध होवे न कलुपमयी कलि में हो न बाधा ।।४२।।

कालिन्दी के पुलिन पर ही जो कहीं भी कढ़े तृ ।
छ के नीला सलिल उनका 'अंग उत्ताप खोना ।
जी चाह ना कुछ समय बाँ खेलना पंकजो से ।
छोटी छोटी सु-लहर उठा क्रीड़ितों को नचाता ॥४३॥

प्यारे प्यारे वरू किशलयों को कभी जो हिलाना ।
तो हो जाना मृदुल रतनी टुटते वे न पावें ।
शाखापत्रों सहित जब तू केलि में लम हो तो ।
थोड़ा सा भी न दुख पहुँचे शावको को खगो के ॥४४॥

तेरी जैसी मृदु - पवन से सर्वथा शान्ति - कामी ।
कोई रोगी पथिक पथ में जो पड़ा हो कहीं तो ।
मेरी सारी दुखमय दशा भूल उत्कण्ठ होके ।
खोना सारा कल्प उसका शान्ति सर्वाड्ग होना ।।४५।।

कोई क्लान्ता कृषक ललना खेत में जो दिखाये ।
धीरे धीरे परस उसकी क्रान्तियो को मिटाना ।
जाता कोई जलद यदि हो व्योम में तो उसे ला ।
छाया द्वारा सुखित करना, तप्त भूतांगना को ।।४६।।

उद्यानो में सु-उपवन में वापिका में सरो में ।
फूलीवाले नवल तरु में पत्र शोभी ड्रमों में ।
आते जाते न रम रहना औ न असक्त होना ।
कुंजो में श्री कमल - कुल में वीधिका में वनो में ॥४७॥