पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६९
पष्ठ सर्ग

प्यारे ऐसे अपर जन भी जो वहाँ दृष्टि आवे ।
देवों के से प्रथित - गुण से तो उन्हें चीन्ह लेना ।
थोडी ही है वय तदपि वे तेजशाली बड़े है ।
तारो मे है न छिप सकता कत राका निशा का ।।६०।।

बैठे होगे जिस थल वहाँ भव्यता भूरि होगी ।
सारे प्राणी वदन लखते प्यार के साथ होगे ।
पाते होगे परम निधियाँ लूटते रत्न होगे ।
होती होंगी हृदयतल की क्यारियाँ पुष्पिता सी ॥६१।।

बैठे होंगे निकट जितने शान्त औ शिष्ट होगे ।
मर्यादा का प्रति पुरुष को ध्यान होगा बडा ही ।
कोई होगा न कह सकता बात दुर्वृत्तता की ।
पूरा पूरा प्रति हृदय मे श्याम प्रातक होगा ।।६२।।

प्यारे प्यारे वचन उनसे बोलते श्याम होगे ।
फैली जाती हृदय - तल मे हर्ष की वेलि होगी ।
देते होगे प्रथित गुण वे देख सद्दष्टि द्वारा ।
लोहा को छू कलित कर से स्वर्ण होगे बनाते ।।६३।।

सीधे जाके प्रथम गृह के मंजु उद्यान मे ही ।
जो थोड़ी भी तन- तपन हो सिक्त हो के मिटाना ।
निर्धूली हो सरस रज से पुष्प के लिप्त होना ।
पीछे जाना प्रियसदन मे स्निग्धता से बडी ही ॥६४॥

जो प्यारे के निकट वजती बीन हो मजुता से ।
किम्बा कोई मुरज - मुरली आदि को हो बजाता ।
या गाती हो मधुर स्वर से मण्डली गायको की ।
होने पावे न स्वर लहरी अल्प भी तो विपन्ना ॥६५।।