पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१४

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विषय में मैं विशेष दोषी न समझा जाऊँगा। कुछ संस्कृत-वृत्तों के कारण और अधिकतर मेरी रुचि से इस ग्रंथ की भाषा संस्कृत-गर्भित है, क्योकि अन्य प्रान्तवालों में यदि समादर होगा तो ऐसे ही ग्रन्थो का होगा। भारतवर्ष भर में संस्कृत-भाषा आहत है। बँगला, मरहठी, गुजराती, वरन् तामिल और पंजाबी तक में संस्कृत शब्दो का बाहुल्य है। इन संस्कृत शब्दो को यदि अधिकता से ग्रहण करके हमारी हिन्दी-भाषा उन प्रान्तो के सज्जनो के सम्मुख उपस्थित होगी तो वे साधारण हिन्दी से उसका अधिक समादर करेंगे, क्योकि उसके पठन-पाठन में उनको सुविधा होगी और वे उसको समझ सकेगे। अन्यथा हिन्दी के राष्ट्रभाषा होने में दुरूहता होगी, क्योंकि सम्मिलन के लिये भाषा और विचार कासाम्य ही अधिक उपयोगी होता है। मैं यह नहीं कहता कि अन्य प्रान्तवालो से घनिष्ठता का विचार करके हम लोग अपने प्रान्तवालों की अवस्था और अपनी भाषा के स्वरूप को भूल जावे। यह मै मानूँगा कि इस प्रान्त के लोगो की शिक्षा के लिये और हिन्दी भाषा के प्रकृत-रूप की रक्षा के निमित्त, साधारण वा सरल हिन्दी में लिखे गये ग्रन्थो की ही अधिक आवश्यकता है, और यही कारण है कि मैंने हिन्दी में कतिपय संस्कृत-गर्भित ग्रन्थो की प्रयोजनीयता बतलाई है। परन्तु यह भी सोच लेने की बात है कि क्या यहाँवालो को उच्च हिन्दी से परिचित कराने के लिये ऐसे ग्रन्थो की आवश्यकता नहीं है, और यदि है तो मेरा यह ग्रन्थ केवल इसी कारण से उपेक्षित होने योग्य नहीं। जो सज्जन मेरे इतना निवेदन करने पर भी अपनी भौह की बकता निवारण न कर सके, उनसे मेरी, यह प्रार्थना है कि वे 'वैदेही-वनवास'[१] के कर-कमलो में पहुँचने तक मुझे क्षमा


  1. जहाँ से यह ग्रन्थ छपा है वहीं से 'वैदेही-वनवास' भी छापा गया है।