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प्रियप्रवास

जो ला देगी चरणरज तो तू वड़ा पुण्य लेगी ।
पूता हूॅगी भगिनि उसको अंग मे मैं लगाके ।
पोतूॅगी जो हृदय तल में वेदना दूर होगी ।
डालूँगी मै शिर पर उसे आँख मे ले मलूंगी ।।७८।।

तू प्यारे का मृद्धल स्वर ला मिष्ट जो है बड़ा ही ।
जो यो भी है क्षरण करती स्वर्ग की सी सुधा को ।
थोड़ा भी ला श्रवणपुट मे जो उसे डाल देगी ।
मेरा सूखा हृदयतल तो पूर्ण उत्फुल्ल होगा ।।७९।।

भीनी भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी ।
मूलीभूता अवनितल मे कीर्ति कस्तूरिका की ।
तू प्यारे के नवलतन की वास ला दे निराली ।
मेरे ऊबे व्यथित चित मे शान्तिधारा वहा दे ॥८०॥

होते होवे पतित कण जो अङ्गरागादिको के ।
धीरे धीरे वहन कर के तू उन्हीको उड़ा ला ।
कोई माला कलकुसुम की कंठसंलग्न जो हो ।
तो यत्नो से विकच उसका पुष्प ही एक ला दे ॥८१॥

पूरी होवे न यदि तुझसे अन्य बाते हमारी ।
तो तू मेरी विनय इतनी मान ले औ चली जा ।
छू के प्यारे कमलपग को प्यार के साथ आ जा ।
जी जाऊँगी हृदयतल में मै तुझीको लगाक ।।८२।।

भ्रांता हो के परम दुख औ भूरि उद्विग्नता से ।
ले के प्रात मृदुपवन को या सखी आदिको को ।
यो ही राधा प्रगट करती नित्य ही वेदनाये ।
चिन्ताये थी चलित करती वर्द्धिता थी व्यथाये ॥८३॥