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सप्तम सर्ग

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मन्दाकान्ता छन्द


ऐसा आया यक दिवस जो था महा मर्मभेटी ।
धाता ने हो दुखित भव के चित्रितो को विलोका ।
धीरे धीरे तरणि निकला कॉपता दग्ध होता ।
काला काला ब्रज-अवनि में शोक का मेघ छाया ॥१॥

खा जाता पथ जिन दिनो नित्य हीश्याम का था ।
सा खोटा यक दिन उन्ही वासरो मध्य आया ।
आँखे नीची जिस दिन किये शोक में मग्न होते ।
खा आते सकल - व्रज ने नन्द गोपादिको- को ।।२।।

खो के होवे विकल जितना आत्म - सर्वस्व कोई ।
होती हैं सो स्वमणि जितनी सर्प को वेदनायें ।
दोनों प्यारे कुंवर तज के ग्राम मे आज आते ।
पीड़ा होती अधिक उससे गोकुलाधीश को थी ॥३॥

लज्जा से वे प्रथित - पथ मे पॉव भी थे न देते ।
जी होता, था व्यथित हरि का पूछते ही सँदेसा ।
वृक्षो में हो विपथ चल वे आ रहे ग्राम में थे ।
ज्यो ज्यो आते निकट महि के मध्य जाते गड़े थे ।।४॥