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७६
प्रियप्रवास


स्वकुल जलज का है जो समुत्फुल्लकारी।
मम परम-निराशा-यामिनी का विनाशी।
व्रज-जन विहगो के वृन्द का मोद-दाता।
वह दिनकर शोभी रामभ्राता कहाँ है॥१७॥

मुख पर जिसके है सौम्यता खेलती सी।
अनुपम जिसका हूँ शील सौजन्य पाती।
परदुख लख के है जो समुद्विग्न होता।
वह कृति सरसी का स्वच्छ सोता कहाँ है॥१८॥

निविड़तम निराशा का भरा गेह में था।
वह किस विधु मुख की कान्ति को देख भागा।
सुखकर जिससे है कामिनी जन्म मेरा।
वह रुचिकर चित्रो का चितेरा कहाँ है॥१९॥

सह कर कितने ही कष्ट औ सकटो को।
वह यजन कराके पूज के निर्जरो को।
यक सुअन मिला है जो मुझे यत्न द्वारा।
प्रियतम! वह मेरा कृष्ण प्यारा कहाँ है॥२०॥

मुखरित करता जो सद्म को था शुको सा।
कलरव करता था जो खगो सा वनो मे।
सुध्वनित पिक सा जो वाटिका को बनाता।
वह बहु विध कठो का विधाता कहाँ है॥२१॥

सुन स्वर जिसका थे मत्त होते मृगादि।
तरुगरण-हरियाली थी महा दिव्य होती।
पुलकित बन जाती थी लसी पुष्प-क्यारी।
उस कल मुरली का नादकारी कहाँ है॥२२॥