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सप्तम सर्ग

जिस प्रिय वर को खो ग्राम सूना हुआ है ।
सदन सदन में हा! छा गई है उदासी ।
तम वलित मही में है न होता उॅजाला ।
वह निपट निराली कान्तिवाला कहाँ है ॥२३॥

वन वन फिरती है खिन्न गाये अनेको ।
शुक भर भर आँखे गेह को देखता है ।
सुधि कर जिसकी है शारिका नित्य रोती ।
वह श्रुचि रुचि,स्वाती मजु मोती कहाँ है ।।२४॥

गृह गृह अकुलाती गोप की पत्नियाँ है ।
पथ पथ फिरते है ग्वाल भी उन्मना हो ।
जिस कुँवर बिना मैं हो रही हूँ अधीरा ।
वह छवि खनि शोभी स्वच्छ हीरा कहाँ है ॥२५॥

मम उर कॅपता था कंस - आतक ही से ।
पल पल डरती थी क्या न जाने करेगा ।
पर परम - पिता ने की बड़ी ही कृपा है ।
वह निज कृत पापों से पिसा आप ही जो ॥२६॥

अतुलित बलवाले मल्ल कूटादि जो थे ।
वह गज गिरि ऐसा लोक - आतंक - कारी ।
अनु दिन उपजाते भीति थोड़ी नहीं थे ।
पर यमपुर - वासी आज वे हो चुके हैं ॥२७॥
 
भयप्रद जितनी थीं आपदाये अनेको ।
यक यक कर के वे हो गई दूर यो ही ।
प्रियतम! अनसोची ध्यान मे भी न आई ।
यह अभिनव कैसी आपदा आ पड़ी है ॥२८॥