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सप्तम सर्ग

विपुल कलित कुजे भानुजा कूलवाली ।
अतुलित जिनमे थी प्रीति मेरे प्रियो की ।
पुलकित चित से वे क्या उन्हीमे गये है ।
कतिपय. दिवसो की श्रान्ति उन्मोचने को ॥३५॥

विविध सुरभिवाली मण्डली वालको की ।
मम युगल सुतो ने क्या कही देख पाई ।
निज सुहृद जनो मे वत्स मे धेनुओ मे ।
बहु विलम गये वे क्या इसीसे न आये ? ॥३६॥

निकट अति अनूठे नीप फूले फले के ।
कलकल बहती जो धार है भानुजा की ।
अति - प्रिय सुत को है दृश्य न्यारा वहाँ का ।
वह समुद उसे ही देखने क्या गया है ? ॥३७॥

सित सरसिज ऐसे गात के श्याम भ्राता ।
यदुकुल जन है औ वश के हैं उजाले ।
यदि वह कुलवालो के कुटुम्वी बने तो ।
सुत सदन अकेले ही चला क्यो न आया ॥३८॥

यदि वह अति स्नेही शील सौजन्य शाली ।
तज कर निज भ्राता को नहीं गेह आया ।
ब्रजअवनि बता दो नाथ तो क्यो बसेगी ।
यदि वदन विलोकोगी न मैं क्यों बनूंगी ॥३९।।

प्रियतम! अब मेरा कंठ मे प्राण आया ।
सच सच बतला दो प्राण प्यारा कहाँ है ?
यदि मिल न सकेगा जीवनाधार मेरा ।
तब फिर निज पापी प्राण में क्यों रखूॅगी ॥४०॥