पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१५०

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सप्तम सर्ग

परम - सुयश वाले कोशलाधीश हा ।
प्रिय - सुत वन जाते ही नहीं जी सके जो ।
यह हृदय हमारा वज्र से ही बना है ।
वह तुरत नहीं जो सैकडो खड होता ॥४७॥

निज प्रिय मणि को जो सर्प खोता कभी है ।
तडप तड़प के तो प्राण है त्याग देता ।
मम सदृश मही मे कौन पापीयसी है ।
हृदय - मणि गॅवा के नाथ जो जीविता हूँ ॥४८।।

लघुतर - सफरी भी भाग्य वाली बडी है ।
अलग सलिल से हो प्राण जो त्यागती है ।
अहह अवनि मे मै हूँ महा भाग्यहीना ।
अव तक बिछुडे जो लाल के जी सकी हूँ ॥४९।।

परम पतित मेरे पातकी - प्राण ए है ।
यदि तुरत नहीं है गात को त्याग देते ।
अहह दिन न जाने कौन सा देखने को ।
दुग्यमय तन में ए निर्ममो से रुके हैं ॥५०॥

विधिवश इन में हा! शक्ति बाकी नहीं है ।
तन तज सकने की, हो गये क्षीण ऐसे ।
वह इस अवनी मे भाग्यवाली बडी है ।
अवसर पर सोवे मृत्यु के अक में जो ॥५१॥

बहु कलप चुकी हूँ दग्ध भी हो चुकी हूँ ।
जग कर कितनी ही रात मे गे चुकी हैं ।
अब न हृदय में है रक्त का लेश बाकी ।
तन वल सुस थाना में सभी सो चुकी हूँ॥५२॥