पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८२
प्रियप्रवास

विधु मुख अवलोके मुग्ध होगा न कोई ।
न सुखित ब्रजवासी कान्ति को देख होगे ।
यह अवगत होता है सुनी वात द्वारा ।
अब बह न सकेगी शान्ति - पीयूष धारा ।।५३।।

सब दिन अति - सूना ग्राम सारा लगेगा ।
निशि दिवस बडी ही खिन्नता से कटेगे ।
समधिक व्रज मे जो छा गई है उदासी ।
अब वह न टलेगी औ सदा ही खलेगी ॥५४॥

बहुत सह चुकी हूँ और कैसे सहूँगी ।
पवि सहश कलेजा मैं कहाँ पा सकूँगी ।
इस कृशित हमारे गात को प्राण त्यागो ।
वन विवश नही, तो. नित्य रो रो मरूँगी ।।५५।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
हा! वृद्धा के अतुल धन हा! वृद्धता के सहारे ।
हा! प्राणो के परम - प्रिय हा! एक मेरे दुलारे ।
हा! शोभा के सदन सम हा! रूप लावण्यवाले ।
हा! बेटा हा! हृदय - धन हा! नेत्र-तारे हमारे ॥५६॥

कैसे होके अलग तुझसे आज भी मैं बची हूँ ।
जो मै ही हूँ समझ न सकी तो तुझे क्यो बताऊँ ।
हाँ जीऊँगी न अब, पर है वेदना एक होती ।
तेरा प्यारा वदन मरती बार मैंने न देखा ॥५७।।

यो ही बातें स-दुख कहते अश्रुधारा बहाते ।
धीरे धीरे यशुमति लगी चेतना - शून्य होने ।
जो प्राणी थे निकट उनके या वहॉ, भीत होके ।
नाना यत्नो सहित उनको वे लगे बोध देने ।।५८।।