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सप्तम सर्ग

आवेगो से बहु विकल तो नन्द थे पूर्व ही से ।
कान्ता को यो व्यथित लख के शोक मे और डूबे ।
बोले ऐसे वचन जिनसे चित्त में शान्ति आवे ।
आशा होवे उदय उर में नाश पावे निराशा ।।५९।।

धीरे धीरे श्रवण करके नन्द की वात प्यारी ।
जाते जो थे वषुप तज के प्राण वे लौट आये ।
आँखे खोली हरि - जननि ने कष्ट से, और बोलीं ।
क्या आवेगा कुँवर ब्रज मे नाथ दो ही दिनों मे ।।६०।।

सारी बाते व्यथित उर की भूल के नन्द बोले ।
हाँ आवेगा प्रिय - सुत प्रिये गेह दो ही दिनों में ।
ऐसी बाते कथन कितनी और भी नन्द ने की ।
जैसे तैसे हरि - जननि को धीरता से प्रवोधा ॥६१॥

जैसे स्वाती-सलिल-कण पा वृष्टि का काल वीते ।
थोड़ी सी है परम तृपिता चातकी शान्ति पाती ।
वैसे आना श्रवण करके पुत्र का दो दिनों मे ।
संज्ञा खोती यशुमति हुई स्वल्प आश्वासिता सी ॥६२॥

पीछे बातें कलप कहती कॉपती कष्ट पाती ।
आई लेके स्वप्रिय पति को सद्म मे नंद-वामा ।
आशा की है अमित महिमा धन्य है दिव्य आशा ।
जो छू के है मृतक बनते प्राणियो को जिलाती ॥६३॥

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