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अष्टम सर्ग

द्रुतविलम्बित छन्द
जब हुप्रा ब्रजजीवन-जन्म था ।
ब्रज प्रफुलित था कितना हुआ ।
उमगती कितनी कृति मूर्ति थी ।
पुलकने कितने नृप नद थे ॥६॥

विपुल सुन्दर - बन्दनवार से ।
सफल द्वार बने अभिगम थे ।
विहॅसते ब्रज - सन- समूह के ।
वदन में दसनावलि थी लसी ॥ ७॥

नव - रसाल - सुपरव के बने ।
अजिर में वर - तोरण थे बँधे ।
बिपुल - जीह विभृपित था हुआ ।
वह मनो रस - लेहन के लिये ।।८।।

गृह गली मग मदिर चौरही ।
नम्बरो पर थी लसती ध्वजा ।
समुद सूचित थी करती मनो ।
वाह कथा प्रज की सुरलोक को ॥९॥

विपरिणो घर - वस्तु विभूपिता ।
मेगि्ध मयी 'अलका मम थी लसी ।
पर- वितान विमंदित ग्राम की ।
सु छवि ची मगवति - रंजिनी ।।१०।।

सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे ।
गुमन - सगुल्न थी मय वीथियाँ ।
प्रति-सु-चर्चित ये नव चौरहे ।
रस प्रवाहित सा सर ठौर था ।।११।।