पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१६

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जिस कविता में न हो वह भी कोई कविता है। कविता तो वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो मधुर अथच कान्तपदावली द्वारा अलंकृत हो। खड़ी बोली में अधिकतर संस्कृत-शब्दों का प्रयोग होता है, जो हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते है। इसके व्यतीत उसकी क्रिया भी ब्रजभाषा की क्रिया से रूखी और कठोर होती है, और यही कारण है कि खड़ी बोली की कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य्य और प्रसाद उसमे नहीं पाया जाता। यहाँ पर मैं यह कहूँगा कि पदावली की कान्तता, मधुरता, कोमलता केवल पदावली में ही सन्निहित है, या उसका कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से भी है? मेरा विचार है कि उसका कुछ सम्बन्ध नहीं, वरन् बहुत कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से है। कर्पूरमंजरीकार प्रसिद्ध राजशेखर कवि अपनी प्रस्तावना में प्राकृतभाषा की कोमलता की प्रशंसा करते हुए कहते है—

परुसा सक्कअवधा पाउअबन्धोबिहोइ सुउमारो।
पुरुसाण महिलाण जेत्तिय मिहन्तरं तेत्तिय मिमाणम्॥

इस श्लोक के साथ निम्नलिखित संस्कृत रचनाओं को मिला कर पढिये—

इतर पापफलानि यथेच्छया वितरतानि सहे चतुरानन।
अरसिकेषु कवित्वनिवेदनम् शिरसि मा लिख मा लिख मा लिख॥
विद्या विनयोपेता हरति न चेतासि कस्य मनुजस्य।
काञ्चनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानदम्॥
वारिजेनेव सरसी शशिनेत्र निशीथिनी।
यौवनेनेव वनिता नयेन श्रीर्मनोहरा॥
आयाति याति पुनरेव जल प्रयाति
पद्माकुराणि विचिनोति चुनोति पक्षों।