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अष्टम सर्ग

जब कभी कुछ ले कर पाणि में ।
वदन मे ब्रजनन्दन डालते ।
चकित-लोचन मे अथवा कभी ।
निरयते जब वस्तु विशेष को ॥४२॥

प्रकृति के नख थे, तब खोलते ।
विविध ज्ञान मनोहर प्रथि को ।
दमकती नव श्री द्विगुणी शिखा ।
महरि मानम मजु प्रदीप की ।।४३।।

कुछ दिनो उपगन्त ब्रजेश के ।
चरण भूपर भी पड़ने लगे ।
नवल नूपुर श्री कटिकिंकिणी ।
वनित हो उठने गृह में लगी ।।४४।।

ठुमुकते गिरते पड़ते हुए ।
जननि के कर की उंगली गहे ।
सदन में चलने जब श्याम थे ।
उमड़ता नव हर्ष-पयोधि था ॥४५॥

फणित हो करके कटिफिफिणी ।
विदित थी करती इन बात को ।
चकितकारक पण्डित मण्डली ।
परम अद्भुत बालक है, यही ।।४६।।

कलिन नृपुर की कल-वादिना ।
जगत को यह थी जतला रही ।
कब भला न प्रजीव सजीवता ।
परम के पद पंकज पा सके ।।४७‌‌।।