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प्रियप्रवास

देती मुग्ध बना किसे न जिनकी ऊंची शिखायें हिले ।
शाखाये जिनकी विहग - कुल से थी शोभिता शन्दिता ।
चारो ओर विशाल - शैल - वर के थे राजते कोटिशः ।
ऊँचे श्यामल पत्र - मान - विटपी पुष्पोपशोभी महा ॥२५॥

जम्बू अम्ब कदम्ब निम्ब फलसा जम्बीर औ ऑवला ।
लीची दाड़िम नारिकेल इमिली औ शिशपा उगुढी ।
नारंगी अमरूद विल्व वदरी सोगौन शालादि भी ।
श्रेणी-बद्ध तमाल ताल कदली औं शाल्मली थे खड़े ॥२५॥

ऊँचे दाडिम से रसाल - तरु थे औ आम्र से शिंशपा ।
यो निम्नोच असंख्य-पादप कसे वृन्दाटवी मध्य थे ।
मानो वे अवलोकते पथ रहे वृन्दावनाधीश का ।
ऊँचा शीश उठा अपार - जनता के तुल्य उत्कण्ट हो ॥२६॥

वंशस्थ छंद
गिरीन्द्र में व्याप विलोकनीय थी ।
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी ।
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी ।
असत जम्बालिनि - कूल जम्बु की ॥२७।।

सुपस्वना पेशलता अपूर्वता ।
फलादि की मुग्धकरी विशति थी ।
रसाप्टुता सी बन मजु भूमि को ।
रसालता थी करती रसाल की ॥२८॥

सु - वर्नुलाकार विलोकनीय था ।
विनम्र - शाखा नयनाभिगम थी ।
अपूर्व थी श्यामल - पत्र - राशि में ।
कदम्ब के पुष्प - कदम्य की छटा ।।२९।।