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प्रियप्रवास

हिला स्व-शाखा नव-पुष्प को खिला ।
नचा सु - पत्रावलि औ फलादि ला ।
नितान्त था मानस पान्थ मोहता ।
सुकेलि - कारी तरु - नारिकेल का ॥३६॥

नितात लवी घनता विवर्द्धिनी ।
असंख्य - पत्रावलि अंकधारिणी ।
प्रगाढ़ - छाया - मय पुप्पशोभिनी ।
अम्लान काया - इमिली सुमौलि थी ॥३७।।

सु- चातुरी से किस के न चित्त को ।
निमग्न सा था करता विनोद मे ।
स्वकीय न्यारी - रचना विमुग्ध हो ।
स्व - शीश-संचालन - मग्न शिशपा ॥३८॥

सु - पत्र संचालित थे न हो रहे ।
नही स - शाखा हिलते फलादि थे ।
जता रही थी निज स्नेह -शीलता ।
स्व - इड्गितो से रुचिरांग इमुदी ॥३९॥

सुवर्ण - ढाले - तमगे कई लगा ।
हरे सजीले निज - वस्त्र को सजे ।
बडे - अनूठेपन साथ था खड़ा ।
महा - रॅगीला तरु - नागरग का ॥४०॥

अनेक - आकार - प्रकार - रंग के ।
सुधा - समोये फल - पुंज से सजा ।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था ।
समोदकारी अमरूद रोदसी ॥४१॥