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प्रियप्रवास

स - मान थी भूतल मे विलुण्ठिता ।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु - अंक से ।
तमाल के से असिताबदात की ।
नियोपमा श्यामलता प्रियगु की ॥६०॥

कहीं शयाना महि में स. चाव थी ।
विलम्विता थी तरु - वन्द मे कही ।
सु- वर्ण - मापी - फल लाभ कामुका ।
तपोरता कानन रत्तिका लता ।।६१।।

सु-लालिमा मे फलकी लगी दिखा ।
विलोकनीया - कमनीय - श्यामता ।
कही भली है वनती कु - वस्तु भी ।
बता रही थी यह मंजु - गुंजिका ।।६२।।

द्रुतविलम्बित छन्द
नव निकेतन कान्त - हरीतिमा ।
जनयिता मुरली - मधु - सिक्त का ।
सरसता लसता वन मध्य था ।
भरित- भावुकता तर वेणुका ॥६३।।

बहु-प्रलुब्ध वना पशु - वृन्द को ।
विपिन के तृण - खादक - जंतु को ।
तृण - समा, कर नीलम नीलिमा ।
मसृण थी तृण-राजि विराजती ॥६४॥

तरु अनेक - उपस्कर, सज्जिता ।
अति - मनोरम - काय अकंटका ।
विपिन को करती छविधाम थी ।
कुसुमिता - फलिता - बहु - झाड़ियाँ ॥६५॥