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प्रियप्रवास

सु - पक्व पीले फल - पुंज व्याज से ।
अनेक बालेदु स्वअङ्क मे उगा ।
उड़ा दलो व्याज हरी हरी ध्वजा ।
नितांत केला कल - केलि - लग्न था ॥४८॥

स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से ।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा भ्रमा ।
अशंकितो सा वन - मध्य था खड़ा ।
प्रवंचना - शील विशाल - शाल्मली ॥४९।।

बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का ।
दिखा घने - पल्लव की हरीतिमा ।
परोपकारी - जन - तुल्य सर्वदा ।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता ॥५०॥

विमुग्धकारी - सित - पीत वर्ण के ।
सुगंध - शाली बहुशः सु-पुष्प से ।
असंख्य - पत्रावलि की हरीतिमा ।
सुरंजिता थी प्रिय - पारिजात की ॥५१॥

समीर - संचालित - पत्र - पुंज मे ।
स्वगात की मत्तकरी - विभूति से ।
विमुग्ध हो विह्वलताभिभूत था ।
मधूक शाखी - मधुपान - मत्त सा ॥५२॥

प्रकाण्डता थी विभु कीर्ति - वर्द्धिनी ।
अनंत - शाखा - बहु - व्यापमान थी ।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की ।
विलोलता - पीपल - पल्लवोद्भवा ॥५३॥