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नवम सर्ग

असंख्य - न्यारे - फल-पुंज से सजा ।
प्रभूत - पत्रावलि मे निमग्न सा ।
प्रगाढ़ - छायाप्रद औ जटा - प्रसू ।
विटानुकारी - वट था विराजता ।।५४।‌।

महा - फलो से सजके वनस्थली ।
जता रही थी यह बुद्धि - मंत को ।
महान - सौभाग्य प्रदान के लिये ।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता ॥५५॥

सदैव देके विष बीज - व्याज से ।
स्वकीय - मीठे - फल के समूह को ।
दिखा रहा था तरु वृद मे खड़ा ।
स्व - आततायीपन पेड़ आत का ॥५६॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
प्यारे - प्यारे - कुसुम - कुल से शोभमाना अनूठी ।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली ।
फैली सारी वन अवनि मे वायु से डोलती थी ।
नाना - लीला निलय सरसा लोभनीया - लताये ।।५७।।

वंशस्थ छन्द
स्व-सेत-आभा - मय दिव्य-पुष्प से ।
वसुंधरा मे अति - मुक्त संज्ञका ।
विराजती थी वन मे विनोदिता ।
महान - मेधाविनि - माधवी - लता ॥५८॥

ललामता कोमलकान्ति - मानता ।
रसालता से निज पन - पुंज की ।
स्वलोचनो को करती प्रलुब्ध थी ।
प्रलोभनीया- लतिका लवग की ॥५९।।