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नवम सर्ग

कभी खिले.- फूल गिरा प्रवाह मे ।
कलिन्दजा को करता स- पुष्प था ।
गिरे फलो से फल - शोभिनी उसे ।
कभी बनाता तरु का समूह था ।।७८।।

विलोक ऐसी तरुवृंद की क्रिया ।
विचार होता यह था स्वभावतः ।
कृतज्ञता से नत हो स - प्रेम वे ।
प्रतंगजा - पूजन मे प्रवृत्त हैं ॥७९॥

प्रवाह होता जब वीचि - हीन था ।
रहा दिखाता वन - अन्य अंक मे ।
परंतु होते सरिता तरंगिता ।
स - वृक्ष होता वन था सहस्रधा ॥८०॥

न कालिमा है मिटती कपाल, की ।
न बाप को है पड़ती कुमारिका ।
प्रतीति होती यह थी विलोक के ।
तमोमयी सी तनया - तमारि को ॥८१॥

मालिनी छन्द
कलित-किरण-माला, बिम्ब - सौंदर्य -शाली ।
सु-गगन तल - शोभी सूर्य का, या शशी का ।
जब रवितनया ले केलि मे लग्न होती ।
छविमय करती थी दर्शको के हगो को ॥८२॥

वशत्थ छद
हरीतिमा का सु-विशाल - सिधु सा ।
मनोज्ञता की रमणीय - भूमि सा ।
विचित्रता का शुभ - सिद्ध - पीठ सा ।
प्रशान्त - वृन्दावन दर्शनीय था ।।८३।।