पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१८३

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प्रियप्रवास

कलोलकारी खग - वृन्द - कूजिता ।
सदैव सानन्द मिलिन्द गुंजिता ।
रही सुकुंजे वन में विराजिता ।
प्रफुल्लिता पल्लविता लतामयी ।।८४||

प्रशस्त - शाखा न समान हस्त के ।
प्रसारिता थी उपपत्ति के बिना ।
प्रलुब्ध थी पादप को बना रही ।
लता समालिगन लाभ लालसा ॥८५।।

कई निराले तरु चारु - अंक मे ।
लुभावने - लोहित पत्र थे लसे ।
सदैव जो थे करते विवद्धिता ।
स्व - लालिमा से वन की ललामता ।।८६।।

प्रसून - शोभी तरु - पुंज - अंक मे ।
लसी ललामा लतिका प्रफुल्लिता ।
जहाँ तहाँ थी वन मे विराजिता ।
स्मिता - समालिगित कामिनी समा ।।८७॥

सुदूलिता थी अति कान्त भाव से ।
कही स - एलालतिका - लवंग की ।
कही लसी थी महि मंजु अंक मे ।
सु-लालिता सी नव माधवी - लता ।।८८।।

मीर संचालित मंद - मंद हो ।
कही दलो से करता सु - केलि था ।
प्रसून - वर्षों - रत था, कही हिला ।
स-पुष्प-शाखा सु - लता - प्रफुलिता ॥८९।।