पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१८७

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प्रियप्रवास

बसी हुई एक निगूढ़ - खिन्नता ।
विलोकते थे निज - सूक्ष्म - दृष्टि से ।
शनैः शनैः जो बहु गुप्त रीति से ।
रही बढ़ाती उर की बिरक्ति को ॥१०८।।

प्रशस्त शाखा तरु - वृन्द की उन्हें ।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी ।
स- कामना जो नभ ओर हो उठा ।
विपन्न - पाता - परमेश के लिये ॥१०९।।

कलिन्दजा के सु - प्रवाह की छटा ।
विहंग - क्रीड़ा कल नाद - माधुरी ।
उन्हे बनाती न अतीव मुग्ध थी ।
ललामता - कुंज - लता - वितान की ॥११०।।

सरोवरो की सुषमा स - कंजता ।
सु - मेरु औ निझर आदि रम्यता ।
न थी यथातथ्य उन्हे विमोहती ।
अनन्त - सौंदर्य - मयी वनस्थली ॥१११॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
कोई कोई विटप फल थे वारहो मास लाते ।
ऑखो द्वारा असमय फले देख ऐसे दुमो को ।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किन्तु तत्काल ही वे ।
शंकाओ को स्व - मति वल औ ज्ञान से थे हटाते ॥११२।।
वशस्थ छन्द
उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी ।
विलोक आता रथ मे स - सारथी ।
किसी किरीटी पट-पीत - गौरवी ।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को ॥११३।।