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प्रियप्रवास



घड़े लिये कामिनियॉ, कुमारियाँ ।
अनेक - कूपो पर थी सुशोभिता ।
पधारती जो जल ले स्व - गेह थी ।
वजा बजा के निज नूपुरादि को ॥१२०।।

कही जलाते जन गेह - दीप थे ।
कही खिलाते पशु को स - प्यार थे ।
पिला पिला चंचल - वत्स को कही ।
पयस्विनी से पय थे निकालते ॥१२१॥

मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की ।
मची हुई गोकुल मध्य धूम थी ।
स-प्रेम गाती जिसको सदैव थी ।
अनेक - कर्माकुल प्राणि - मण्डली ॥१२२।।

हुआ इसी काल प्रवेश ग्राम मे ।
शनैः शनैः ऊधव - दिव्य - यान का ।
विलोक आता जिसको, समुत्सुका ।
वियोग - दग्धा - जन - मण्डली हुई ॥१२३।।

जहॉ लगा जो जिस कार्य मे रहा ।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता ।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा ।
विलोकने को धन - श्याम - माधुरी ।।१२४।।

विलोकते जो पशु-वन्द पन्थ थे ।
तजा उन्होने पथ का विलोकना ।
अनेक दौड़े तज धेनु बॉधना। ।
अवाधिता पावस आपगोपमा ।।१२५।।